मंगलवार, 26 जनवरी 2016

भला कौन देखता है जा घर लुहारों के


दिल से कभी पूछ लिया पहरेदारों के।
बेपर्दा राज हो गए कई इज्जतदारों के।।
ब्रांड की डिमांड में तो मिडल क्लास भी।
हैं लोग आदी हो गए अब इश्तहारों के।।
बाज़ार का विकास भी दिखने लगता है।
आ जाते हैं जब भी मौसम त्यौहारों के।।
लोहा कूट कर जो यहां रोटी कमाते रहे।
भला कौन देखता है जा घर लुहारों के।।
धीरे बोलने की आदत डाल लो या फिर।
अजी कभी तो मरोडिये कान दीवारों के।।
अभिनय था बनावटी, अदाएं दिखावटी।
जब चरित्र में ही खोट थी किरदारों के।।
तेरी आरजू में तो बसे मेट्रो के मॉल हैं।
और मेरी हसरतों में है साए देवदारों के।।

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